अब तो मज़हब कोई ऐसा भी चलाया जाए
जिसमे इंसान को इंसान बनाया जाए
जिसकी ख़ुशबू से महक जाए पड़ोसी का घर
फूल इस किस्म का हर सिमत खिलाया जाए
आग बहती है यहाँ गंगा में भी ज़मज़म में भी
कोई बतलाये कहाँ जा के नहाया जाए
मेरा मक़सद है ये महफिल रहे रौशन यूँ ही
खून चाहे मेरा दीपो में जलाया जाए
मेरे दुःख-दर्द का तुम पर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुमसे भी ना खाया जाए
जिस्म दो हो के भी दिल एक हों अपने ऐसा
मेरा आँसू तेरी पलकों से उठाया जाए